पलामू व्याघ्र परियोजना के कोर एरिया अंतर्गत विस्थापित होने वाले लाटू और कुजरुम के ग्रामीण पुछ रहे हैं वन विभाग और जिला प्रशासन से सवाल, हमें कहां से मिलेगा न्याय?

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रिपोर्ट- जेरोम जेराल्ड कुजूर

लातेहारः पलामू व्याघ्र परियोजना के कोर एरिया अंतर्गत आ रहे 2 वन गाँव,  लाटू एवं कुज़रोम में निवास कर रहे ग्रामीणों  के पुनर्वास योजना में वन विभाग एवं प्रशासन आदिवासियों को विस्थापित तो ज़रूर करना चाहती है, लेकिन उनका समुचित पुनर्वास नहीं। राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के निर्देश अनुसार लाटू और कुज़रोम में निवास कर रहे लोगों को 2 विकल्प दिए गए थें।

पहला विकल्प- 15 लाख रुपये लेकर बेदखल हो जाएं और पुनर्वास की व्यवस्था स्वयं करेंः

पहले विकल्प के अंतर्गत लोग 10 लाख का मुआवजा लेकर अपने घरों से विस्थापित हो जाएँगे, और अपने पुनर्वासन की ज़िम्मेदारी वे ख़ुद उठाएँगे। इस विकल्प के तहत 10 लाख की राशि देने के पश्चात, वन विभाग की पुनर्वास के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी। झारखंड सरकार ने प्रथम विकल्प को और आकर्षित बनाने हेतु इसमें 5 लाख की अतिरिक्त राशि जोड़ दी। आसान शब्दों में लोग 15 लाख लेकर अपने घर से बेदख़ल हो जाएँ और अपने पुनर्वास की व्यवस्था खुद करें।

दूसरा विकल्प- राशी ना लें, बदले में 5 एकड़ जमीन, खतियानी अधिकार और सड़क़ बिजली, पानी जैसे सुविधा वन विभाग उपलब्ध करवाएगीः

दूसरे विकल्प में यह कहा गया कि, समुचित 10 लाख की राशि लोगों को ना देकर, वन विभाग उनके पुनर्वास से सम्बंधित कार्य करेगी। इस कार्य के तहत वन विभाग लोगों को 5 एकड़ ज़मीन दिलाएगी, खतियानी हक़ दिलाएगी, उनके लिए मकान बनवाएगी और सामूहिक सुविधाएँ, जैसे सड़क, पेयजल, शौचालय, मोबाइल, बिजली इत्यादि की सुविधा उपलब्ध कराएगी।

वन विभाग और जिला प्रशासन के वादा खिलाफी से मायुस कुजरुम के ग्रामीण.
ग्रामीणों के आवास और उनके अधिकार क्षेत्र की जमीन, जिसकी वर्षों से घेरावंदी है.

लाटू और कुजरुम के 210 परिवारों में से 127 परिवारों ने चुना दूसरा विकल्पः

कुजरूम गाँव के 120 परिवारों में से 70 परिवार ने दूसरे विकल्प को चुना, वहीं लाटू गाँव के 90 परिवारों में से 57 परिवारों ने दूसरे विकल्प को चुना। लाटू और कुज़रोम गाँव के निवासियों के लिए दूसरा विकल्प चुनने का मुख्य कारण उनके पुनर्वास हेतु उनको दी जाने वाली 5 एकड़ ज़मीन थी।

वर्तमान में 5 एकड़ जमीन देने से वन विभाग इन्कार कर रही हैः लालू उरांव, ग्राम प्रधान

कुजरूम गाँव के ग्रामप्रधान लालू उरांव बताते हैं कि, इस पुनर्वास योजना के धरताल पर उतरने से पहले ही, पलामू व्याघ्र परियोजना से सम्बंधित वन विभाग के अधिकारी एवं ज़िला प्रशासन ने उच्चतम न्यायालय के आदेश जो 28 जनवरी 2019 (WP (Civil) – 202/1995; IA No. 3934/2015) के फ़ैसले का हवाला देकर लाटू और कुज़रूम के ग्रामीणों को 5 एकड़ ज़मीन देने से मना कर रही है। प्रशासन का कहना है कि विस्थापित ग्रामीणों को सिर्फ उतनी ही ज़मीन मिलेगी जितनी ज़मीन (व्यक्तिगत) से वे बेदख़ल किए जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पे अगर, किसी व्यक्ति का लाटू गाँव में 0.5 एकड़ ज़मीन है, तो उसे विस्थापित जगह पे उतनी ही ज़मीन मिलेगी ना की 5 एकड़ जमीन।

जिस जगह पर पुनर्वास करवाया जा रहा है, वो जगह खाली कराये गए जमीन से कम हैः

उच्चतम न्यायालय अपने 28 जनवरी 2019 के आदेश में केंद्रीय पराधिकृत समिति (CEC)के सिफारिशों को माना जिसमें यह उल्लिखित था कि ‘the extent of land de-reserved/de-notified for resettlement shall not be more than the extent vacated by the settlers in the core area’ (पुनर्वास के लिए अनारक्षित/अअधिसूचित भूमि की सीमा मूल क्षेत्र में बसने वालों द्वारा खाली की गई भूमि की सीमा से अधिक नहीं होगी)। आसान शब्दों में जिस जगह पर लोगों का पुनर्वास किया जाना है, उस जगह की कुल सीमा (क्षेत्रफल अनुसार) ख़ाली किए गए जगह (लाटू और कुज़रोम गाँव) की कुल क्षेत्रफल सीमा से अधिक नहीं हो सकती है। इस आदेश में कहीं भी ग्रामीणों के व्यक्तिगत ज़मीन का जिक्र नहीं है।

राज्य वन विभाग स्वयं भी स्वीकार कर चुकी हैः

यह बात स्वयं वन विभाग अपने पत्राचार, जो की केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को सम्बोधित था (दिनांक 1/04/2022), में स्वीकार करता है। इस पत्राचार में राज्य वन विभाग ये स्पष्ट करता है कि पुनर्वास हेतु जो ज़मीन मुहैया करायी जा रही है, उसका कुल क्षेत्र करीबन 750 एकड़ है और खाली कराए जा रहे ज़मीन का कुल क्षेत्र 827 एकड़ से कम है। अर्थात विस्थापित परिवारों के अधिकार में 827 एकड़ भूमि थी औप जहां इनका पुनर्वास किया जाना है उसका कुल क्षेत्रफल 750 एकड़ है। मतलब जहां इनका पुनर्वास किया जाएगा वो अधिकार क्षेत्र से 77 एकड़ कम है।

लाटू और कुजरुम के आदिवासियों का सवाल, क्यों आदिवासियों के लिए न्याय का दरवाजा बंद कर दिया गया है?

वर्तमान में ज़िला प्रशासन एवं वन विभाग ना केवल राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकार के निर्देशों का उल्लंघन कर रहा है, बल्कि उच्चतम न्यायालय के आदेशों को भी तोड़-मरोड़ कर उसकी अवहेलना कर रहा है। इन चीज़ों में यह बात स्पष्ट तौर पे निकल के आ रही है कि वन विभाग एवं प्रशासन आदिवासियों को विस्थापित तो ज़रूर करना चाहती है, पर सही तरीके से पुनर्वासित नहीं। ऐसे में सवाल यह उठता है, की सारा का सारा सरकारी तंत्र आदिवासियों को बेघर करने में क्यों लगा हुआ है? लाटू और कुजरुम गांव के आदिवासियों को न्याय कहां मिलेगा?  क्या आदिवासियों के लिए न्याय के सारे दरवाजे बंद हो चुके? और अगर बंद किया गया है तो क्यों और किसने किया? आदिवासी न्याय के लिए कौन सा और किस दरवाजे पर नोंक करे? या फिर आदिवासी न्याय की उम्मीद छोड़ बगावत पर उतर जाएं?

देश के संविधान का अनुच्छेद-21 देश के हर नागरीक, चाहे वो किसी भी जाति या धर्म को मानने वाले है, उन्हें गरीम के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है। इसके अलावा आदिवासी बहुल पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में आदिवासियों के लिए विशेष कानून है। बावजुद जिस तरह लाटू और कुजरुम गांव के आदिवासियों के साथ अन्याय हो रहा है, वो संविधान का उल्लंघन है और उल्लंघन भी वो संस्थाएं कर रही है, जिसका काम संविधान के अनुरुप काम कर लोगों को उनका संवैधानिक अधिकार दिलाना है।

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