पहाड़िया जनजाति- विकास योजनाओं से हैं महरुम, मौलिक सुविधाएं भी मयस्सर नहीं…

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रिपोर्ट- संजय वर्मा…

साहेबगंजः पहाड़िया जनजाति के विकास और तेजी से घटती इनकी जनसंख्या को देखते हुए केन्द्र और राज्य सरकार इनके उत्थान के लिए कई विकास योजनाएं चला रही है, जिस पर करोड़ों-करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं। लेकिन धरातल पर सरकार के विकास योजनाओं का लाभ इन पहाड़िया जनजाति को नही मिल पा रहा है। धरातल की सच्चाई सरकार के झुठे दावों की पोल खोलते नजर आ रही है। इनकी आबादी अब भी तेजी से घट रही है और इनके दशा और दिशा में कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है। सरकार की विकास योजनाओं का लाभ तो दूर की बात है मौलिक सुविधाएं भी इन्हें मयस्सर नहीं हो पा रही है। ये कहा जा सकता है कि सरकार, इनके विकास से जुडे  प्रशासनिक अधिकारी और विकास का लाभ पहुंचाने वाले संवेदकों ने एक साजिश के तहत अपना वारा-न्यारा करते हुए इन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन का अधिकार, सड़क और बिजली पानी समेत अन्य विकास योजनाओं से अब तक इन्हें महरुम रखा हुआ है।

बिते 18 और 19 सितंबर 2021 को ताजा खबर झारखंड की टीम ने एचआरएलएन( Human Right Low Network) की टीम के साथ साहेबगंज जिले के मंडरो प्रखंड अन्तर्गत डेमा, बड़ा गुटीबेड़ा, कोदेपाड़ा और बोरियो प्रखंड अन्तर्गत बिजुलिया और दुले गांव का दौरा किया। टीम ने कूल पांच गांवों का दौरा कर लगभग 300 पहाडिया जनजाति के ग्रामीण और सभी गांवों के ग्राम प्रधानों से बात कर पुरे वस्तु स्थिति की जानकारी ली।

डेमा, बड़ा गुटीबेड़ा, बिजुलिया, दुले और कोदेपाड़ा गांव की जनसंख्याः

उपरोक्त पांच गांवों में लगभग 170 घर हैं, जिसमें 1 हजार से अधीक लोग निवास करते हैं। यहां स्कूल जाने लायक बच्चों की संख्या लगभग 200 के आसपास है। इन गांवों में बिजुलिया गांव सबसे बड़ा है, जहां 50 से अधीक घर हैं और आबादी लगभग 350 के आसपास है।  

ग्रामीणों के लिए यातायात का कोई साधन नहीः

जिला मुख्यालय से इन गांवों तक जाने के लिए यातायात का कोई साधन नहीं है। मुख्यालय से बिजुलिया गांव की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है, बाकि गांव रास्ते में ही पड़ते हैं, जो चारो ओर उंचे-उंचे पहाड़, घने जंगल और झांड़ियों से पटा पड़ा है। यहां तक जाने के लिए कोई भी चार चक्का सवारी वाहन तैयार नहीं हुआ। काफी मशक्कत के बाद एक स्थानीय ऑटो चालक जाने के लिए तैयार हुआ, लेकिन वो भी मात्र 5 किलोमीटर तक, बाकी का सफर टीम के सदस्यों ने बड़े-बड़े बोल्डर और घने जंगलों के बीच बने पगडंडियों के बीच से हो कर पैदल ही तय किया। मंदरो प्रखंड के डेमा गांव तक जाने के दौरान कई बार ऑटो दुर्घटना होते-होते बची, इस दौरान कई साथी चोटिल भी हुएं। रही बात इन गांवों में बसे हजारों पहाड़िया लोगों की, तो ये लोग सप्ताह में एक दिन बाजार करने के लिए इन्हीं उबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों से होकर पहाड़ से नीचे आते हैं, और बाजार करने के बाद जरुरत के सामान से भरे भारी-भरकम टोकरी और थैले लेकर वापस अपने घर पैदल ही लौटते हैं, जिसमें 3 से 4 घंटे का समय लगता है।

पहाड़िया गांवों में शिक्षा की स्थितिः

  1. डेमा गांव, मंडरो प्रखंडः डेमा गांव में एक अर्द्धनिर्मित स्कूल देखा गया, जिसके कमरे कचड़ो से भरा हुआ था, वहीं अर्द्धनिर्मित स्कूल के दूसरे कमरे में एक स्थानीय ग्रामीण, परिवार के साथ निवास कर रहे हैं। कई वर्षों बाद भी स्कूल भवन का निर्माण कार्य अबतक पुरा नहीं किया जा सका है। इस गांव के बच्चे शिक्षा से पुरी तरह वंचित हैं।
  • बड़ा गुटीबेड़ा गांव, मंडरो प्रखंडः इस गांव में उत्क्रमित मध्य विद्यालय गुटीबेड़ा स्थित है, जहां कक्षा 1 से लेकर कक्षा 6 तक की पढ़ाई होती है। इस स्कूल में एक सरकारी शिक्षक हैं, जिनका नाम रामइकबाल सिंह है। इस स्कूल में बच्चों के पीने के लिए पानी की कोई व्यवस्था नही है। गांव के ग्रामीण और ग्राम प्रधान ने बताया कि लॉक डाउन में स्कूल पिछले साल से ही बंद है, लेकिन लॉक डाउन से पूर्व में भी शिक्षक महीने में सिर्फ 1-2 दिन ही स्कूल आया करते थें। जिसके कारन इस गांव के बच्चे अशिक्षित हैं। ग्रामीणों ने ये भी बताया कि हम सभी अपने बच्चों के पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन नजदीक में कोई स्कूल नही है। अनुसूचित जनजाति आवासीय विद्यालय गांव से 16 किलोमीटर दूर है। इस आवासीय स्कूल में सिमित संख्या में पहाड़िया जनजाति के बच्चों के लिए सीट होने के कारन बच्चों के नामांकन में काफी परेशानी होती है।
  • बिजुलिया गांव, बोरियो प्रखंडः  जिन पांच गांवों में एचआरएनएल की टीम के साथ ताजा खबर झारखंड की टीम ने जांच की, उनमें बिजुलिया गांव सबसे बड़ा है। इस गांव में 50 से भी अधीक बच्चे स्कूल जाने लायक है, लेकिन डेमा गांव की तरह यहां भी अर्द्धनिर्मित स्कूल देखा गया, जहां खाली अर्द्धनिर्मित कमरों में दर्जनों पशु बंधे हुए थें, चारो तरफ गोबर का अंबार लगा हुआ था। ग्रामीणों ने बताया कि 2004 में स्कूल का निर्माण कार्य शुरु हुआ था, जो आज तक पुरा नहीं हुआ। शिक्षक या शिक्षा से जुड़े अधिकारी कभी भी इस गांव में नहीं पहुंचें। गांव के सभी बच्चे अशिक्षित है। पूर्व में गांव के 2-3 बच्चों ने बाहर रह कर इंटर तक की शिक्षा ग्रहण की है। अन्य स्कूल की दूरी गांव से काफी अधीक है, जिसके कारन बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं।
  • कोदोपाड़ा गांव, मंडरो प्रखंडः कोदोपाड़ा गांव में भी एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय देखा गया। इस स्कूल भवन से ही शौचालय सटा हुआ है। यहां उग चुके उंची-उंची झाड़ियों को देख कर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि शौचालय का उपयोग नहीं किया जाता है। ग्रामीणों ने बताया कि इस स्कूल में भी सिर्फ एक शिक्षक हैं, जो महिने में एक दिन स्कूल आते हैं सिर्फ खानापूर्ति के लिए। इस गांव के भी बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। स्कूल परिसर में ना ही कुंवां है और ना ही चापाकल।
  • दुले गांव, बोरियो प्रखंडः दुले गांव में स्कूल नही है और गांव से दूसरे स्कूल की दूरी लगभग 15 किलोमीटर है। इस गांव के बच्चे भी स्कूल नही जाते, क्योंकि घने जंगलों के बीच पगडंडियों से हो कर स्कूल जाने में दो से ढ़ाई घंटे का समय लगता है। कूल मिला कर इस गांव के भी बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। 
बोरियो प्रखंड के बिजुलिया गांव में सन् 2004 में बना अधुरा स्कूल भवन, जो वर्तमान में बना है गौशाला.

इन गांवों में चारपाई है मरीजों का एंबुलेंसः

साहेबगंज जिले के मंदरो प्रखंड अन्तर्गत डेमा, बड़ागुटीबेड़ा, कोदोपाड़ा और बोरियो प्रखंड अन्तर्गत बिजुलिया और दुले गांव में पहाड़िया जनजातियों की स्वास्थ्य व्यवस्था काफी चिंताजनक है। सड़क नहीं होने के कारन इन गांव में एंबुलेंस नही पहुंचती है। गंभीर रुप से बीमार मरीजों को चारपाई(खाट) पर ढ़ो कर मरीज के परिजन पथरीले रास्ते पर काफी कठिनाई से 15 से 20 किलोमीटर की दूरी तय कर स्वास्थ्य केन्द्र तक पहुंचाते हैं। इन गांवों में कभी-कभार एएनएम औक सहिया सिर्फ टीका लगाने के लिए पहुंचती है। ग्रामीणों ने बताया कि इन पांच गांव से अलग कुलभंगा और मारीकुटी गांव में स्वास्थ्य केन्द्र है, जहां सिर्फ एएनएम पहुंचती है, चिकित्सक कभी भी नही आते हैं।

कुलभंगा स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र लंबे समय से बंद हैः 

बिजुलिया गांव से वापसी के क्रम में जांच टीम, कुलभंगा स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र पहुंची। इस स्वास्थ्य केन्द्र के परिसर और भवन के चारो ओर उंची-उंची झांड़ियां उगी हुई है और केन्द्र के दरवाजे पर जंग लगा ताला, जिसे देख कर स्पष्ट पता चलता है कि ये स्वास्थ्य केन्द्र लंबे समय से खोला ही नही गया है। कुलभंगा के ग्रामीणों ने भी इस बात की पुष्टि की। कुलभंगा गांव के ग्रामीणों ने बताया कि हमारे गांव में कोई व्यक्ति गंभीर रुप से बीमार हो जाता है, तो उसे खटिया पर ढ़ो कर 15 किलोमीटर दूर साहेबगंज स्वास्थ्य केन्द्र ले जाना पड़ता है। कई बार मरीजों की मौत रास्ते में ही हो जाती है।

डोभा और झरने का गंदा पानी पीने के लिए मजबुर हैं पहाड़ियाः

डेमा, बड़ागुटीबेड़ा, कोदोपाड़ा, बिजुलिया और दुले गांव में कहीं भी पीने के पानी की व्यवस्था सरकार द्वारा नहीं की गई है। इन गांवो के लोग डोभा और बरसाती झरने का गंदा पानी पीने के लिए विवश हैं। ग्रामीण बताते हैं कि बरसात में पानी काफी गंदा रहता है, जिसके कारन मलेरिया, कालाजार और टायफाईड रोग से इन गांवों के ग्रामीण ज्यादा पीड़ित रहते हैं। वहीं गर्मी के दिनों में झरना और डोभा सुख जाने के कारन पानी की तलाश में ग्रामीणों को काफी लंबी दुरी तय कर पानी की तलाश करनी पड़ती है, जब जा कर प्यास बुझ पाता है।  

पत्थर खनन कंपनी ने डेमा गांव के ग्रामीणों को कुंवे का पानी लेने से रोकाः

डेमा गांव से एक किलोमीटर की दूरी पर एक कुंवा हैं, जहां का पानी ग्रामीण पीने के उपयोग में लाते हैं, लेकिन पास में ही चल रहे पत्थर उत्खनन के कारन कुंवें का पानी सुखने लगा है। ग्रामीणों ने बताया कि बिहार की कंपनी गलत तरीके से रैयती जमीन पर भी पत्थर उत्खनन कर रही है। गांव वालों के लिए कुंवां ही एक मात्र सहारा है पानी का, लेकिन कंपनी अब कुंवां को भी जमींदोज करना चाहती है। कई बार ग्रामीणों को कुंवे से पानी लाने जाने के क्रम में कंपनी के लोगों द्वारा खदेडा गया, जिसके बाद ग्रामीणों ने जिले के जिलाधिकारी क पास गुहार लगाई। फिलहाल जिलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद ग्रामीण कुंवे का ही पानी उपयोग कर रहे हैं, हलांकि कंपनी का उत्खनन कार्य कुंवे से मात्र 20 मीटर की दूरी पर जारी है, जिससे ग्रामीण काफी भयभीत है। 

पहाड़ी और पथरीले जमीन के कारन नहीं होती धान की खेती, झूम खेती एक मात्र सहाराः

पहाड़ के उपर बसे पहाड़िया जनजाति, पानी की कमी के कारन धान की खेती नही कर पाते हैं। यहां सिंचाई की कोई व्यवस्था सरकार की ओर से नहीं की गई है। ये लोग सिर्फ बरसात के मौसम में पहाड़ की ढ़लान वाले जमीन पर झाडियों की कटाई कर मक्का, बरबटी और उरद् की खेती करते हैं, जो इन लोगों का मुख्य खाद्य फसल है। 

विकास योजनाओं की स्थितिः

सभी परिवारों के पास नहीं है राशन कार्डः

उपरोक्त पहाड़िया गांव में 8-10 साल पहले जो राशन कार्ड परिवारों का बनाया गया था, सिर्फ उन्हें ही राशन दिया जा रहा है, लेकिन सभी गांवों में लगभग 10 से 15 प्रतिशत ऐसे भी परिवार मिलें जिनकी शादी 5 से 8 वर्ष पूर्व हो चुकी है और अपने परिवार के साथ अलग भी रह रहे हैं, लेकिन इनका राशन कार्ड अब तक नही बना है, जिसके कारन ये लोग जन वितरण प्रणाली की दुकानों से मिलने वाले अनाज स वंचित हैं।

  • राशन कार्ड धारियों को डाकिया योजना का नहीं मिल रहा लाभः

झारखंड में पूर्व की रघुवर सरकार ने आदिम जनजाति परिवारों को डीलर द्वारा घर तक राशन पहुंचाने के लिए डाकिया योजना की शुरुआत की है। इसके तहत आदिम जनजाति के राशन कार्ड धारियों को हर माह घर तक डीलर द्वारा राशन पहुंचाना है, लेकिन सभी कार्डधारियों के घर तक राशन नहीं पहुंचाया जा रहा है। कई गांव के कार्डधारी हर माह पहाड़ से नीचे उतर कर राशन लेने के लिए डीलर के पास जाते हैं। ग्रामीणों ने ये भी बताया कि जिन-जिन गांव में डीलर द्वारा घर तक राशन पहुंचाया जाता है, उन लोगों से 30 से 100 रुपये तक वाहन चालक लेता है, उसके बाद ही राशन दिया जाता है। वहीं डेमा गांव की महिला ग्राम प्रधान, गंगी पहाड़िन ने बताया की डीलर ट्रैक्टर से प्रति राशन कार्ड धारी 35 किलो चावल गांव में भेजता है और 200 रुपये हर कार्डधारी से चावल का मुल्य लेता है, जिसमें ट्रैक्टर का भाड़ा और चावल का मुल्य जुड़ा रहता है।

  • मनरेगा योजना की स्थितः

साहेबगंज जिले के जिन पांच गांव का हमारी टीम ने दौरा किया, उन गांवों में लगभग हर पहाड़िया परिवार के पास मनरेगा जॉब कार्ड है, लेकिन इन्हें काम नहीं दिया जा रहा है। जानकारी के अभाव में ये लोग काम के लिए आवेदन भी नही दिए हैं। ग्रामीण बताते हैं कि गांव में रोजगार सेवक 3-4 महिने में सिर्फ एक बार आते हैं, गांव में कोई अधिकारी या मुखिया नही आते हैं, जिसके कारन हमलोगों को कोई जानकारी नहीं मिलती है।

  • विधवा और वृद्धा पेंशन के अलावा मुख्यमंत्री आदिम जनजाति पेंशन योजना से भी हैं वंचितः  

उपरोक्त पांच गांवों में सैंकड़ों विधवा और वृद्ध महिलाएं हैं, जिन्हें पेंशन मिलना चाहिए, लेकिन यहां कई महिलाओं को पेंशन नही दिया जा रहा है। काफी समय पूर्व जिन महिलाओं को पेंशन दिया जा रहा था, सिर्फ उन्हें ही दिया जा रहा है। दुले गांव के ग्राम प्रधान ने बताया कि दो बार मुखिया और पंचायत सेवक को आवेदन दिया जा चुका है, लेकिन आज तक कुछ नही हुआ, हमलोग थक चुके हैं, हमलोगों के आवेदन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। इसके अलावा सरकार ने आदिम जनजाति पेंशन योजना भी शुरु की है, जिसके तहत आदिम जनजाति के 18 वर्ष से उपर की हर महिलाओं को 1000 रुपये पेंशन दिया जाना है। सरकार के इस योजना से भी इन गांव की महिलाऐं वंचित हैं।

  • उज्जवला और आवास योजना का भी नहीं दिया जा रहा लाभः

पहाड़ पर निवास कर रहे साहेबगंज के प्रथम आदिवासी, पहाड़िया आदिवासियों को उज्जवला योजना और आवास योजना का लाभ भी अब तक नही मिला है। बड़ा गुटीबेड़ा गांव के 37 परिवारों में से सिर्फ एक परिवार को उज्जवला योजना का लाभ दिया गया है, बाकि गांवों के लोगों को इस योजना के बारे में कोई जानकारी नही है और ना ही मुखिया, पंचायत सेवक या रोजगार सेवक ने इन योजनाओं के बारे में जानकारी देना उचित समझा।

अपने बदहाली की जानकारी देते पहाड़िया ग्रामीण.

पहाड़िया लोगों का जिविकोपार्जन सुखी लकड़ी और बांस पर है निर्भरः

पहाड़ के उपर बसे पहाड़िया लोगों का जीवन पुरी तरह सुखी लकड़ी और बांस के कारोबार पर निर्भर है। अगर एक दिन ये लकड़ी बेचने के लिए पहाड़ से नीचे नही उतरें, तो इन्हें भुखे पेट ही सोना पड़ेगा। पहाड़ के उपर सिर्फ बरसात के दिनों में मक्का, उरद् और बरबटी(बोदी) की खेती होती है। यहां सिंचाई की व्यवस्था नही रहने के कारन धान या अन्य फसल की खेती पहाड़िया लोग नही करते हैं। सुखी लकड़ी और बांस बेच कर ये लोग महिने में 2 से 3 हजार रुपये जुगाड़ कर पाते हैं, जिससे इनका गुजारा चलता है।

नोटः इस पूरे मामले पर हमारी टीम ने जिले के उपायुक्त(फोन नः 9431152021) और प्रखंड विकास पदाधिकारी(9939741525) से बात करनी चाही, लेकिन उन्होंने फोन रिसिव नहीं किया।

कूल मिला का आदिम जनजातियों के लिए सरकार की सभी घोषणाएं सिर्फ एक जुमला बन कर रह गई है। धरातल की सच्चाई ये है कि विकास योजनाओं के साथ-साथ मौलिक सुविधाओं से अब भी आदिम जनजाति के लोग वंचित हैं। सरकार के अधिकारी और स्थानीय जनप्रतिनिधि इस ओर कोई ध्यान नही दे रहे हैं, जबकि इनके विकास के नाम पर करोड़ो-अरबों रुपये खर्च किए जा रहा हैं। सरकार को इस ओर ध्यान देने की जरुरत है।

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